जन्म के पहले जिस प्रकार हम थे, उसी प्रकार मृत्यु भी कोई ऐसी घटना नहीं है, जिससे जीवन का नाश सिद्ध होता हो। नाश शब्द भी जन्म की तरह '' नश अदर्शने 'धातु से बना है; जिसका अर्थ होता है, जो अभी तक दिखायी दे रहा था, अब वह अव्यक्त हो गया। वह अपनी सूक्ष्म अवस्था में चला गया। शरीर स्थूल था-उसमें प्रविष्ट होने के कारण संरचना दिखायी दे रही थी, चेतना व्यक्त थी-पर शरीर के बाद वह नष्ट हो गई हो ऐसा नहीं है। अब इस तथ्य को विज्ञान भी मानने लगा है, अलबत्ता विज्ञान प्रकट का संबंध अभी तक मनोमय विज्ञान से जोड़ नहीं पाया, इसलिए वह परलोक, पुनर्जन्म, लोकोत्तर जीवन, भूत-प्रेत, देव-योनि, यक्ष-किन्नर, पिशाच, बैताल आदि अतींद्रिय अवस्थाओं की विश्लेषण नहीं कर पाता। पर मृत्यु के बाद जीवन नष्ट नहीं हो जाता है, यह एक अकाट्य तथ्य है और इसी आधारभूत सिद्धान्त के कारण भारतीय जीवन पद्धति का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि वह मृत्यु के बाद भी अपने जीवन के अनंत प्रवाह को अपने यथार्थ लक्ष्य स्वर्ग, मुक्ति और ईश्वर दर्शन की ओर मोड़े रह सके। मुख्यत: सभी धर्मग्रंथों में भूत-प्रेत बाधा, ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि का उल्लेख है । कुछ ग्रंथों में इन्हें बुरी आत्मा भी कहा गया है, तो कुछ अन्य में भूत-प्रेत और जिन्न।
भूत-प्रेतों की गति एवं शक्ति अपार होती है। इनकी विभिन्न जातियां होती हैं और उन्हें भूत, प्रेत, राक्षस, पिशाच, यम, शाकिनी, डाकिनी, चुड़ैल, गंधर्व आदि कहा जाता है।
आत्मा के तीन स्वरुप माने गए हैं-
1. जीवात्मा
2. प्रेतात्मा
3. सूक्ष्मात्मा
जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं।
जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं।
यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, उस उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।
यह न जीवित स्थिति कही जा सकती है और न पूर्ण मृतक ही। जीवित इसलिए नहीं कि स्थूल शरीर न होने के कारण वे वैसा कर्म तथा उपभोग नहीं कर सकते, जो इंद्रियों की सहायता से सकते हैं ही संभव हो। मृतक उन्हें इसलिए नहीं कह सकते कि वासनाओं और आवेशों से अत्यधिक ग्रसित होने के कारण उनका सूक्ष्म शरीर काम करने लगता है, अस्तु वे अपने अस्तित्व का परिचय यत्र-तत्र देते-फिरते हैं। इस विचित्र स्थिति में पड़े होने के कारण वे किसी का लाभ एवं सहयोग तो कदाचित कर ही सकते हैं; हाँ, डराने या हानि पहुँचाने का कार्य वे सरलतापूर्वक संपन्न कर सकते हैं। इसी कारण आमतौर से लोग प्रेतों से डरते हैं और उनका अस्तित्व अपने समीप अनुभव करते ही, उन्हें भगाने का प्रयत्न करते हैं।
भूत-प्रेतों की गति एवं शक्ति अपार होती है। इनकी विभिन्न जातियां होती हैं और उन्हें भूत, प्रेत, राक्षस, पिशाच, यम, शाकिनी, डाकिनी, चुड़ैल, गंधर्व आदि कहा जाता है।
आत्मा के तीन स्वरुप माने गए हैं-
1. जीवात्मा
2. प्रेतात्मा
3. सूक्ष्मात्मा
जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं।
जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं।
यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, उस उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।
यह न जीवित स्थिति कही जा सकती है और न पूर्ण मृतक ही। जीवित इसलिए नहीं कि स्थूल शरीर न होने के कारण वे वैसा कर्म तथा उपभोग नहीं कर सकते, जो इंद्रियों की सहायता से सकते हैं ही संभव हो। मृतक उन्हें इसलिए नहीं कह सकते कि वासनाओं और आवेशों से अत्यधिक ग्रसित होने के कारण उनका सूक्ष्म शरीर काम करने लगता है, अस्तु वे अपने अस्तित्व का परिचय यत्र-तत्र देते-फिरते हैं। इस विचित्र स्थिति में पड़े होने के कारण वे किसी का लाभ एवं सहयोग तो कदाचित कर ही सकते हैं; हाँ, डराने या हानि पहुँचाने का कार्य वे सरलतापूर्वक संपन्न कर सकते हैं। इसी कारण आमतौर से लोग प्रेतों से डरते हैं और उनका अस्तित्व अपने समीप अनुभव करते ही, उन्हें भगाने का प्रयत्न करते हैं।
प्रेत योनि और पितृ योनि के बीच अंतर :-
आज के भौतिक विज्ञानियों के कथनुसार प्रेत के शरीर की रचना में 25% फिजिकल एटम और 75 % एथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25% ईथरिक एटम और 75 % एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छाया चित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छाया चित्र लिया जा सकता है। लेकिन उसके लिए अत्यधिक सेन्सिटिव फोटो प्लेट की आवश्यकता पड़ेगी और वैसे फोटो प्लेट बनने की संभावना निकट भविष्य में नहीं है। फिर भी डिजिटल कैमरे की मदद से वर्तमान में इसके लिए जो फोटो प्लेट बने हैं उनके ऊपर अभी केवल प्रयास करने पर ही प्रेतों के चित्र लिए जा सकते हैं। ईथरिक एटम की एक विशेषता यह है कि वह मानस को प्रभावित करता है और यही कारण है कि प्रेतात्माएं अपने मानस से अपने भाव शरीर को सघन कर लेती है सा संकुचित कर लेती है और जहां चाहे वहां अपने आपको प्रकट कर देती हैं। जो अणु दूर-दूर हैं वे मानस से सरक कर समीप आ जाते हैं और भौतिक शरीर जैसी रूपरेखा उनसे बन जाती है, लेकिन अधिक समय तक वे एक दूसरे के निकट रह नहीं पाते। मानस के क्षीण होते ही वे फिर दूर-दूर जाते हैं या लोप हो जाती है और यही कारण है कि प्रेतछाया अधिक समय तक एक ही स्थान पर ठहर नहीं पाती, बल्कि कुछ ही सेकेंड्स में अदृश्य हो जाती है।
भूतों के प्रकार: हिन्दू धर्म में गति और कर्म अनुसार मरने वाले लोगों का विभाजन किया है- भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वेताल और क्षेत्रपाल। उक्त सभी के उप भाग भी होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार 18 प्रकार के प्रेत होते हैं। भूत सबसे शुरुआती पद है या कहें कि जब कोई आम व्यक्ति मरता है तो सर्वप्रथम भूत ही बनता है।
ज्योतिष के आधार पर नजर दोष का विश्लेषण : -
ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार गुरु पितृदोष, शनि यमदोष, चंद्र व शुक्र जल देवी दोष, राहुसर्प व प्रेत दोष, मंगल शाकिनी दोष, सूर्य देव दोष एवं बुध कुल देवता दोष का कारकहोता है। राहु, शनि व केतु ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह हैं। जब किसी व्यक्ति के लग्न(शरीर), गुरु (ज्ञान), त्रिकोण (धर्म भाव) तथा द्विस्वभाव राशियों पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है, तो उस पर ऊपरी हवा की संभावना होती है।
नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति का शरीर कंपकंपाता रहता है। वह अक्सर ज्वर, मिरगीआदि से ग्रस्त रहता है।
कब और किन स्थितियों में डालती हैं ऊपरी हवाएं किसी व्यक्ति पर अपना प्रभाव : -
1. जब कोई व्यक्ति दूध पीकर या कोई सफेद मिठाई खाकर किसी चौराहे पर जाता है, तब ऊपरी हवाएं उस पर अपना प्रभाव डालती हैं। गंदी जगहों पर इन हवाओं का वास होता है,इसीलिए ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों को ये हवाएं अपने प्रभाव में ले लेती हैं। इन हवाओं का प्रभाव रजस्वला स्त्रियों पर भी पड़ता है। कुएं, बावड़ी आदि पर भी इनका वास होता है। विवाह व अन्य मांगलिक कार्यों के अवसर पर ये हवाएं सक्रिय होती हैं। इसकेअतिरिक्त रात और दिन के १२ बजे दरवाजे की चौखट पर इनका प्रभाव होता है।
2. प्रेत योनि का रहस्यमय विज्ञान जुड़ा है पीड़ित चंद्रमा से :
दूध व सफेद मिठाई चंद्र के द्योतक हैं। चौराहा राहु का द्योतक है। चंद्र राहु का शत्रु है।अतः जब कोई व्यक्ति उक्त चीजों का सेवन कर चौराहे पर जाता है, तो उस पर ऊपरीहवाओं के प्रभाव की संभावना रहती है।
दूध व सफेद मिठाई चंद्र के द्योतक हैं। चौराहा राहु का द्योतक है। चंद्र राहु का शत्रु है।अतः जब कोई व्यक्ति उक्त चीजों का सेवन कर चौराहे पर जाता है, तो उस पर ऊपरीहवाओं के प्रभाव की संभावना रहती है।
3. कोई स्त्री जब रजस्वला होती है, तब उसका चंद्र व मंगल दोनों दुर्बल हो जाते हैं। येदोनों राहु व शनि के शत्रु हैं। रजस्वलावस्था में स्त्री अशुद्ध होती है और अशुद्धता राहु कीद्योतक है। ऐसे में उस स्त्री पर ऊपरी हवाओं के प्रकोप की संभावना रहती है।
4. कुएं एवं बावड़ी का अर्थ होता है जल स्थान और चंद्र जल स्थान का कारक है। चंद्र राहुका शत्रु है, इसीलिए ऐसे स्थानों पर ऊपरी हवाओं का प्रभाव होता है।
5. जब किसी व्यक्ति की कुंडली के किसी भाव विशेष पर सूर्य, गुरु, चंद्र व मंगल का प्रभावहोता है, तब उसके घर विवाह व मांगलिक कार्य के अवसर आते हैं। ये सभी ग्रह शनि वराहु के शत्रु हैं, अतः मांगलिक अवसरों पर ऊपरी हवाएं व्यक्ति को परेशान कर सकती हैं।
6. दिन व रात के १२ बजे सूर्य व चंद्र अपने पूर्ण बल की अवस्था में होते हैं। शनि व राहु इनके शत्रु हैं, अतः इन्हें प्रभावित करते हैं। दरवाजे की चौखट राहु की द्योतक है। अतःजब राहु क्षेत्र में चंद्र या सूर्य को बल मिलता है, तो ऊपरी हवा सक्रिय होने की संभावनाप्रबल होती है।
7. मनुष्य की दायीं आंख पर सूर्य का और बायीं पर चंद्र का नियंत्रण होता है। इसलिएऊपरी हवाओं का प्रभाव सबसे पहले आंखों पर ही पड़ता है। यहां ऊपरी हवाओं से संबद्ध ग्रहों, भावों आदि का विश्लेषण प्रस्तुत है।
प्रेत बाधा के कारक प्रमुख ग्रह :-
1. राहु-केतु – जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, शनिवत राहु ऊपरी हवाओं का कारक है। यह प्रेत बाधा का सबसे प्रमुख कारक है। इस ग्रह का प्रभाव जब भी मन, शरीर, ज्ञान,धर्म, आत्मा आदि के भावों पर होता है, तो ऊपरी हवाएं सक्रिय होती हैं।
2. शनि – इसे भी राहु के समान माना गया है। यह भी उक्त भावों से संबंध बनाकर भूत-प्रेतपीड़ा देता है।
3. चंद्र – मन पर जब पाप ग्रहों राहु और शनि का दूषित प्रभाव होता है और अशुभ भावस्थित चंद्र बलहीन होता है, तब व्यक्ति भूत-प्रेत पीड़ा से ग्रस्त होता है।
4. गुरु – गुरु सात्विक ग्रह है। शनि, राहु या केतु से संबंध होने पर यह दुर्बल हो जाता है।इसकी दुर्बल स्थिति में ऊपरी हवाएं जातक पर अपना प्रभाव डालती हैं।
कुण्डली में भाव - स्थिति :-
1. लग्न – यह जातक के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है। इसका संबंध ऊपरी हवाओं के कारक राहु, शनि या केतु से हो या इस पर मंगल का पाप प्रभाव प्रबल हो, तो व्यक्ति केऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना बनती है।
2. पंचम – पंचम भाव से पूर्व जन्म के संचित कर्मों का विचार किया जाता है। इस भाव परजब ऊपरी हवाओं के कारक पाप ग्रहों का प्रभाव पड़ता है, तो इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति के पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों में कमी है। अच्छे कर्म अल्प हों, तो प्रेत बाधा योग बनता है।
3. अष्टम – इस भाव को गूढ़ विद्याओं व आयु तथा मृत्यु का भाव भी कहते हैं। इसमें चंद्र और पापग्रह या ऊपरी हवाओं के कारक ग्रह का संबंध प्रेत बाधा को जन्म देता है।
4. नवम – यह धर्म भाव है। पूर्व जन्म में पुण्य कर्मों में कमी रही हो, तो यह भाव दुर्बल होताहै।
अन्य - ज्योतिषीय योग
राशियां – जन्म कुंडली में द्विस्वभाव राशियों मिथुन, कन्या और मीन पर वायु तत्व ग्रहोंका प्रभाव हो, तो प्र्रेत बाधा होती है।
वार – शनिवार, मंगलवार, रविवार को प्रेत बाधा की संभावनाएं प्रबल होती हैं।
तिथि – रिक्ता तिथि एवं अमावस्या प्रेत बाधा को जन्म देती है।
नक्षत्र – वायु संज्ञक नक्षत्र प्रेत बाधा के कारक होते हैं।
योग – विष्कुंभ, व्याघात, ऐंद्र, व्यतिपात, शूल आदि योग प्रेत बाधा को जन्म देते हैं।
करण – विष्टि, किस्तुन और नाग करणों के कारण व्यक्ति प्रेत बाधा से ग्रस्त होता है।
दशाएं – मुख्यतः शनि, राहु, अष्टमेश व राहु तथा केतु से पूर्णतः प्रभावित ग्रहों कीदशांतर्दशा में व्यक्ति के भूत-प्रेत बाधाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है।
किसी स्त्री के सप्तम भाव में शनि, मंगल और राहु या केतु की युति हो, तो उसके पिशाचपीड़ा से ग्रस्त होने की संभावना रहती है।
गुरु नीच राशि अथवा नीच राशि के नवांश में हो, या राहु से युत हो और उस पर पाप ग्रहोंकी दृष्टि हो, तो जातक की चांडाल प्रवृत्ति होती है।
पंचम भाव में शनि का संबंध बने तो व्यक्ति प्रेत एवं क्षुद्र देवियों की भक्ति करता है।
ऊपरी हवाओं के कुछ मुख्य ज्योतिषीय योग
1. यदि लग्न, पंचम, षष्ठ, अष्टम या नवम भाव पर राहु, केतु, शनि, मंगल, क्षीण चंद्रआदि का प्रभाव हो, तो जातक के ऊपरी हवाओं से ग्रस्त होने की संभावना रहती है। यदिउक्त
2. ग्रहों का परस्पर संबंध हो, तो जातक प्रेत आदि से पीड़ित हो सकता है।
3. यदि पंचम भाव में सूर्य और शनि की युति हो, सप्तम में क्षीण चंद्र हो तथा द्वादश में गुरुहो, तो इस स्थिति में भी व्यक्ति प्रेत बाधा का शिकार होता है।
4. यदि लग्न पर क्रूर ग्रहों की दृष्टि हो, लग्न निर्बल हो, लग्नेश पाप स्थान में हो अथवाराहु या केतु से युत हो, तो जातक जादू-टोने से पीड़ित होता है।
5. लग्न में राहु के साथ चंद्र हो तथा त्रिकोण में मंगल, शनि अथवा कोई अन्य क्रूर ग्रहहो, तो जातक भूत-प्रेत आदि से पीड़ित होता है।
6. यदि षष्ठेश लग्न में हो, लग्न निर्बल हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो, तो जातकजादू-टोने से पीड़ित होता है। यदि लग्न पर किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि न हो, तोजादू-टोने से पीड़ित होने की संभावना प्रबल होती है। षष्ठेश के सप्तम या दशम में स्थितहोने पर भी जातक जादू-टोने से पीड़ित हो सकता है।
7. यदि लग्न में राहु, पंचम में शनि तथा अष्टम में गुरु हो, तो जातक प्रेत शाप से पीड़ितहोता है।
ऊपरी हवाओं के सरल उपाय
ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु शास्त्रों में अनेक उपाय बताए गए हैं। अथर्ववेद में इस हेतु कई मंत्रों व स्तुतियों का उल्लेख है। आयुर्वेद में भी इन हवाओं से मुक्ति के उपायों काविस्तार से वर्णन किया गया है। यहां कुछ प्रमुख सरल एवं प्रभावशाली उपायों का विवरण प्रस्तुत है।
* ऊपरी हवाओं से मुक्ति हेतु हनुमान चालीसा का पाठ और गायत्री का जप तथा हवनकरना चाहिए। इसके अतिरिक्त अग्नि तथा लाल मिर्ची जलानी चाहिए।
* रोज सूर्यास्त के समय एक साफ-सुथरे बर्तन में गाय का आधा किलो कच्चा दूध लेकरउसमें शुद्ध शहद की नौ बूंदें मिला लें। फिर स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर मकान कीछत से नीचे तक प्रत्येक कमरे, जीने, गैलरी आदि में उस दूध के छींटे देते हुए द्वार तकआएं और बचे हुए दूध को मुख्य द्वार के बाहर गिरा दें। क्रिया के दौरान इष्टदेव का स्मरणकरते रहें। यह क्रिया इक्कीस दिन तक नियमित रूप से करें, घर पर प्रभावी ऊपरी हवाएंदूर हो जाएंगी।
* रविवार को बांह पर काले धतूरे की जड़ बांधें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी।
* लहसुन के रस में हींग घोलकर आंख में डालने या सुंघाने से पीड़ित व्यक्ति को ऊपरीहवाओं से मुक्ति मिल जाती है।
* घर के मुख्य द्वार के समीप श्वेतार्क का पौधा लगाएं, घर ऊपरी हवाओं से मुक्त रहेगा।
* उपले या लकड़ी के कोयले जलाकर उसमें धूनी की विशिष्ट वस्तुएं डालें और उस से उत्पन्न होने वाला धुआं पीड़ित सुंघाएं। यह क्रिया किसी ऐसे व्यक्ति सेकरवाएं जो अनुभवी हो और जिसमें पर्याप्त आत्मबल हो।
* रविवार को स्नानादि से निवृत्त होकर काले कपड़े की छोटी थैली में तुलसी के आठपत्ते, आठ काली मिर्च और सहदेई की जड़ बांधकर गले में धारण करें, नजर दोष बाधा सेमुक्ति मिलेगी।
* निम्नोक्त मंत्र का १०८ बार जप करके सरसों का तेल अभिमंत्रित कर लें और उससेपीड़ित व्यक्ति के शरीर पर मालिश करें, व्यकित पीड़ामुक्त हो जाएगा।
मंत्र – ओम नमो काली कपाला देहि देहि स्वाहा।
* ऊपरी हवाओं के शक्तिशाली होने की स्थिति में शाबर मंत्रों का जप एवं प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के पूर्व इन मंत्रों का दीपावली की रात को अथवा होलिका दहन की रात को जलती हुई होली के सामने या फिर श्मशन में १०८ बार जप कर इन्हें सिद्धकर लेना चाहिए। यहां यह उल्लेख कर देना आवष्यक है कि इन्हें सिद्ध करने के इच्छुक साधकों में पर्याप्त आत्मबल होना चाहिए, अन्यथा हानि हो सकती है।
* निम्न मंत्र से थोड़ा-सा जीरा ७ बार अभिमंत्रित कर रोगी के शरीर से स्पर्श कराएंऔर उसे अग्नि में डाल दें। रोगी को इस स्थिति में बैठाना चाहिए कि उसका धूंआ उसकेमुख के सामने आये। इस प्रयोग से भूत-प्रेत बाधा की निवृत्ति होती है।
मंत्र – जीरा जीरा महाजीरा जिरिया चलाय। जिरिया की शक्ति से फलानी चलिजाय॥ जीये तो रमटले मोहे तो मशान टले। हमरे जीरा मंत्र से अमुख अंग भूत चले॥ जायहुक्म पाडुआ पीर की दोहाई॥
* एक मुट्ठी धूल को निम्नोक्त मंत्र से ३ बार अभिमंत्रित करें और नजर दोष से ग्रस्तव्यक्ति पर फेंकें, व्यक्ति को दोष से मुक्ति मिलेगी।
मंत्र – तह कुठठ इलाही का बान। कूडूम की पत्ती चिरावन। भाग भाग अमुक अंक सेभूत। मारुं धुलावन कृष्ण वरपूत। आज्ञा कामरु कामाख्या। हारि दासीचण्डदोहाई।
* थोड़ी सी हल्दी को ३ बार निम्नलिखित मंत्र से अभिमंत्रित करके अग्नि में इसतरह छोड़ें कि उसका धुआं रोगी के मुख की ओर जाए। इसे हल्दी बाण मंत्र कहते हैं।
मंत्र – हल्दी गीरी बाण बाण को लिया हाथ उठाय। हल्दी बाण से नीलगिरी पहाड़थहराय॥ यह सब देख बोलत बीर हनुमान। डाइन योगिनी भूत प्रेत मुंड काटौ तान॥आज्ञा कामरु कामाक्षा माई। आज्ञा हाड़ि की चंडी की दोहाई॥
*जौ, तिल, सफेद सरसों, गेहूं, चावल, मूंग, चना, कुष, शमी, आम्र, डुंबरक पत्ते औरअषोक, धतूरे, दूर्वा, आक व ओगां की जड़ को मिला लें और उसमें दूध, घी, मधु और गोमूत्रमिलाकर मिश्रण तैयार कर लें। फिर संध्या काल में हवन करें और निम्न मंत्रों का १०८बार जप कर इस मिश्रण से १०८ आहुतियां दें।
मंत्र – मंत्र रू ओम नमः भवे भास्कराय आस्माक अमुक सर्व ग्रहणं पीड़ा नाशनं कुरु-कुरु स्वाहा।
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श्रीमद् भागवत - पाँचवा अध्याय -
आत्मदेव ब्राम्हण संतान न होने से दुखी था | वन में महात्मा ने उसे एक फल देकर कहा की इसे अपनी स्त्री को खिला दे | उसकी पत्नी धूंधुलि ने फल गाय को खिला दिया | धूंधुलि ने अपनी बहिन के साथ मिलकर नाटक रचा | उसकी बहिन उस समय गर्भवती थी | धूंधुलि खुद गर्भवती होने का नाटक करती रही | समय आने पर उसने अपनी बहिन का बच्चा ले लिया और लोगो को कह दिया की उसकी बहिन को मरा हुआ बच्चा हुआ है | इस काम के लिए बहिन के पति को बहुत सा धन भी दिया | इस तरह धूंधुलि ने अपने बच्चे का नाम धूंधुकारी रखा | कुछ समय बाद गाय को भी मनुष्यकार बच्चा हुआ | गाय के उसके जेसे कान होने से आत्मदेव ने उसका नाम गौकर्ण रखा | धूंधुकारी बहुत ही दुष्ट तथा हिंसक प्रवृति का था | इसके विपरीत गौकर्ण ज्ञानी और दानी था | धूंधुकारी से तंग आकर आत्मदेव वन को चले गये |
पिता के वन चले जाने पर एक दिन धूंधुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा- बता! धन कहाँ रखा है? नहीं तो जलती लकड़ी से तेरी खबर लूँगा | उसकी इस धमकी से डर कर तथा दुखी होकर धूंधुलि ने कुएँ में गिर कर प्राण त्याग दिए | धूंधुकारी पाँच वैश्याओं के साथ घर में रहने लगा |
वह जहाँ तहाँ से बहुत सा धन चुरा के लाता | चोरी का माल देख कर एक दिन वैश्याओं ने सोचा- "यह नित्य ही चोरी करता है | इसे अवश्य ही राजा पकड़ लेगा और कड़ा दंड देगा | इसे मारकर, सारा माल लेकर हम कहीं चली जाएँगी |" ऐसा निश्चय करके उन्होने सोए हुए धूंधुकारी को रस्सी से कस दिया और गले में फाँसी लगाकर मारने का प्रयत्न किया | इससे भी वह नही मारा तो उस के मुख पर जलते हुए अंगारे डाले | इससे वह तड़प तड़प कर मर गया | उन्होने उसके शरीर को एक गड्ढे में डाल कर गाढ दिया |
धूंधुकारी अपने कर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ | वह सर्वदा दसों दिशाओं में भटकता रहता था | और भूख प्यास से व्याकुल होने के कारण "हा देव !! हा देव !!" चिल्लाता रहता था परंतु उसे कोई आश्रय नही मिलता |
जब गौकर्ण को अपने भाई की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होने उसका गयाजी में श्राद्ध किया | वह जहाँ भी जाते, धूंधुकारी के नाम से दान करते | घूमते घूमते वह अपने नगर पहुँचे | रात्रि के समय अपने घर के आँगन मे सो गये | अपने भाई गौकर्ण को सोया देख धूंधुकारी ने अपना विकट रूप दिखाया | वह कभी भेड़ा, हाथी, भेंसा तो कभी इंद्र, अग्नि का रूप धारण करता | अंत में वह मनुष्यकार में प्रकट हुआ | ये विपरीत अवस्थाएं देख कर गौकर्ण ने निश्चय कर लिया था की यह अवश्य ही दुर्गति को प्राप्त हुआ है |
तब उन्होनें धैर्य पूर्वक पूछा- "तू कौन है? रात्रि के समय एसा भयानक रूप क्यूँ दिखा रहा है? तेरी यहा दशा कैसे हुई?" गौकर्ण के इस प्रकार पूछने पर प्रेत ज़ोर ज़ोर से रोने लगा | उसने कहा- मैं तुम्हारा भाई धूंधुकारी हूँ | मैं महान अज्ञान में चक्कर काट रहा था | मैने लोगों की बड़ी हिंसा की | इसी से मैं प्रेत योनि में पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ | भाई! तुम दया के सागर हो | कैसे भी करके मुझे इस प्रेत योनि से मुक्ति दिलाओ |
गौकर्ण ने कहा- मैने तुम्हारे लिए विधि पूर्वक गयाजी में पिंड दान किया | फिर भी तुम्हे मुक्ति नहीं मिली | मुझे क्या करना चाहिए? प्रेत बोला- मेरी मुक्ति सैंकड़ों गयाश्राद्ध से भी नहीं हो सकती | गौकर्ण ने कहा- तब तो तुम्हारी मुक्ति असंभव है | तुम अभी निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो | मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिए उपाय करूँगा |
गौकर्ण की आग्या पाकर धूंधुकारी वहाँ से चला गया | सुबह होने पर गौकर्ण ने लोगों को सारी बात बताई | उनमें से जो विद्वान थे, उन्होने कहा की इस विषय में जो सूर्यनारायण कहें वही करना चाहिए | अतः गौकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया | उन्होने स्तुति की-भगवान! आप सारे संसार के साक्षी हैं | कृपा करके मुझे धूंधुकारी की मुक्ति का उपाय बताएँ | तब सूर्यनारायण ने कहा- श्रीमद् भागवत से मुक्ति हो सकती है | उसका सप्ताहपरायण करो |
गौकर्ण जी निश्चय करके कथा सुनाने को तैयार हो गये | जब गौकर्ण जी कथा सुनाने को व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, तब प्रेत भी वहाँ आ गया इधर उधर बैठने का स्थान ढूढ़ने लगा | तब वह सात गाँठ के एक बाँस के छेद में घुसकर बैठ गया |
सायँकाल को जब कथा को विश्राम दिया गया, तभी बाँस की एक गाँठ तड़ तड़ करती हुई फट गयी | दूसरे दिन दूसरी गाँठ | इस प्रकार से सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर, बारह स्कंधो को सुनकर, धूंधुकारी प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सब के सामने प्रकट हुआ | उसने तुरंत गौकर्ण को प्रणाम करके कहा- भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेत योनि से मुक्ति दिला दी | यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद् भागवत कथा धन्य है |
जिस समय धूंधुकारी यह सब बातें कह रहा था, उसी समय उसके लिए वैकुंठ वासी पार्षदों सहित विमान उतरा | सब लोगों के सामने धूंधुकारी उसमें चढ़ गया | तब गौकर्ण ने कहा- भगवान के प्रिय पार्षदों! यहाँ तो अनेक श्रोतागण हैं | फिर उन सब के लिए आप लोग बहुत से विमान क्यूँ नहीं लाए? यहाँ सभी ने समान रूप से कथा सुनी है | फिर अंत में इस प्रकार का भेद क्यूँ?
भगवान के सेवकों ने कहा- इस फल भेद का कारण इनका श्रवण भेद ही है | श्रवण तो सभी ने समान रूप से किया, परंतु इसके (प्रेत) के जैसा मनन नहीं किया | इस प्रेत ने सात दिन तक निराहार श्रवण किया था | अतः मुक्ति को प्राप्त हुआ | एसा कहकर हरी कीर्तन करते हुए पार्षद वैकुंठ लोक चले गये |
श्रावण मास में गौकर्ण जी ने फिर से सप्ताह क्रम में कथा कही और उन श्रोताओं ने फिर से कथा सुनी | इस बार भक्तो के लिए विमान के साथ भगवान प्रकट हुए | भगवान स्वयं हर्षित होकर अपने पाँचजन्य शंख से ध्वनि करने लगे तथा गौकर्ण को हृदय से लगा कर अपने समान बना लिया |
यह कथा बहुत पवित्र है | एक बार के श्रवण से ही समस्त पाप राशि को नष्ट कर देती है | यदि इसका श्राद्ध के समय पाठ किया जाए, तो इससे पित्रगण को बड़ी तृप्ति मिलती है | और नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है |
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श्रीमद् भागवत - पाँचवा अध्याय -
आत्मदेव ब्राम्हण संतान न होने से दुखी था | वन में महात्मा ने उसे एक फल देकर कहा की इसे अपनी स्त्री को खिला दे | उसकी पत्नी धूंधुलि ने फल गाय को खिला दिया | धूंधुलि ने अपनी बहिन के साथ मिलकर नाटक रचा | उसकी बहिन उस समय गर्भवती थी | धूंधुलि खुद गर्भवती होने का नाटक करती रही | समय आने पर उसने अपनी बहिन का बच्चा ले लिया और लोगो को कह दिया की उसकी बहिन को मरा हुआ बच्चा हुआ है | इस काम के लिए बहिन के पति को बहुत सा धन भी दिया | इस तरह धूंधुलि ने अपने बच्चे का नाम धूंधुकारी रखा | कुछ समय बाद गाय को भी मनुष्यकार बच्चा हुआ | गाय के उसके जेसे कान होने से आत्मदेव ने उसका नाम गौकर्ण रखा | धूंधुकारी बहुत ही दुष्ट तथा हिंसक प्रवृति का था | इसके विपरीत गौकर्ण ज्ञानी और दानी था | धूंधुकारी से तंग आकर आत्मदेव वन को चले गये |
पिता के वन चले जाने पर एक दिन धूंधुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा- बता! धन कहाँ रखा है? नहीं तो जलती लकड़ी से तेरी खबर लूँगा | उसकी इस धमकी से डर कर तथा दुखी होकर धूंधुलि ने कुएँ में गिर कर प्राण त्याग दिए | धूंधुकारी पाँच वैश्याओं के साथ घर में रहने लगा |
वह जहाँ तहाँ से बहुत सा धन चुरा के लाता | चोरी का माल देख कर एक दिन वैश्याओं ने सोचा- "यह नित्य ही चोरी करता है | इसे अवश्य ही राजा पकड़ लेगा और कड़ा दंड देगा | इसे मारकर, सारा माल लेकर हम कहीं चली जाएँगी |" ऐसा निश्चय करके उन्होने सोए हुए धूंधुकारी को रस्सी से कस दिया और गले में फाँसी लगाकर मारने का प्रयत्न किया | इससे भी वह नही मारा तो उस के मुख पर जलते हुए अंगारे डाले | इससे वह तड़प तड़प कर मर गया | उन्होने उसके शरीर को एक गड्ढे में डाल कर गाढ दिया |
धूंधुकारी अपने कर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ | वह सर्वदा दसों दिशाओं में भटकता रहता था | और भूख प्यास से व्याकुल होने के कारण "हा देव !! हा देव !!" चिल्लाता रहता था परंतु उसे कोई आश्रय नही मिलता |
जब गौकर्ण को अपने भाई की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होने उसका गयाजी में श्राद्ध किया | वह जहाँ भी जाते, धूंधुकारी के नाम से दान करते | घूमते घूमते वह अपने नगर पहुँचे | रात्रि के समय अपने घर के आँगन मे सो गये | अपने भाई गौकर्ण को सोया देख धूंधुकारी ने अपना विकट रूप दिखाया | वह कभी भेड़ा, हाथी, भेंसा तो कभी इंद्र, अग्नि का रूप धारण करता | अंत में वह मनुष्यकार में प्रकट हुआ | ये विपरीत अवस्थाएं देख कर गौकर्ण ने निश्चय कर लिया था की यह अवश्य ही दुर्गति को प्राप्त हुआ है |
तब उन्होनें धैर्य पूर्वक पूछा- "तू कौन है? रात्रि के समय एसा भयानक रूप क्यूँ दिखा रहा है? तेरी यहा दशा कैसे हुई?" गौकर्ण के इस प्रकार पूछने पर प्रेत ज़ोर ज़ोर से रोने लगा | उसने कहा- मैं तुम्हारा भाई धूंधुकारी हूँ | मैं महान अज्ञान में चक्कर काट रहा था | मैने लोगों की बड़ी हिंसा की | इसी से मैं प्रेत योनि में पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ | भाई! तुम दया के सागर हो | कैसे भी करके मुझे इस प्रेत योनि से मुक्ति दिलाओ |
गौकर्ण ने कहा- मैने तुम्हारे लिए विधि पूर्वक गयाजी में पिंड दान किया | फिर भी तुम्हे मुक्ति नहीं मिली | मुझे क्या करना चाहिए? प्रेत बोला- मेरी मुक्ति सैंकड़ों गयाश्राद्ध से भी नहीं हो सकती | गौकर्ण ने कहा- तब तो तुम्हारी मुक्ति असंभव है | तुम अभी निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो | मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिए उपाय करूँगा |
गौकर्ण की आग्या पाकर धूंधुकारी वहाँ से चला गया | सुबह होने पर गौकर्ण ने लोगों को सारी बात बताई | उनमें से जो विद्वान थे, उन्होने कहा की इस विषय में जो सूर्यनारायण कहें वही करना चाहिए | अतः गौकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया | उन्होने स्तुति की-भगवान! आप सारे संसार के साक्षी हैं | कृपा करके मुझे धूंधुकारी की मुक्ति का उपाय बताएँ | तब सूर्यनारायण ने कहा- श्रीमद् भागवत से मुक्ति हो सकती है | उसका सप्ताहपरायण करो |
गौकर्ण जी निश्चय करके कथा सुनाने को तैयार हो गये | जब गौकर्ण जी कथा सुनाने को व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, तब प्रेत भी वहाँ आ गया इधर उधर बैठने का स्थान ढूढ़ने लगा | तब वह सात गाँठ के एक बाँस के छेद में घुसकर बैठ गया |
सायँकाल को जब कथा को विश्राम दिया गया, तभी बाँस की एक गाँठ तड़ तड़ करती हुई फट गयी | दूसरे दिन दूसरी गाँठ | इस प्रकार से सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर, बारह स्कंधो को सुनकर, धूंधुकारी प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सब के सामने प्रकट हुआ | उसने तुरंत गौकर्ण को प्रणाम करके कहा- भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेत योनि से मुक्ति दिला दी | यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद् भागवत कथा धन्य है |
जिस समय धूंधुकारी यह सब बातें कह रहा था, उसी समय उसके लिए वैकुंठ वासी पार्षदों सहित विमान उतरा | सब लोगों के सामने धूंधुकारी उसमें चढ़ गया | तब गौकर्ण ने कहा- भगवान के प्रिय पार्षदों! यहाँ तो अनेक श्रोतागण हैं | फिर उन सब के लिए आप लोग बहुत से विमान क्यूँ नहीं लाए? यहाँ सभी ने समान रूप से कथा सुनी है | फिर अंत में इस प्रकार का भेद क्यूँ?
भगवान के सेवकों ने कहा- इस फल भेद का कारण इनका श्रवण भेद ही है | श्रवण तो सभी ने समान रूप से किया, परंतु इसके (प्रेत) के जैसा मनन नहीं किया | इस प्रेत ने सात दिन तक निराहार श्रवण किया था | अतः मुक्ति को प्राप्त हुआ | एसा कहकर हरी कीर्तन करते हुए पार्षद वैकुंठ लोक चले गये |
श्रावण मास में गौकर्ण जी ने फिर से सप्ताह क्रम में कथा कही और उन श्रोताओं ने फिर से कथा सुनी | इस बार भक्तो के लिए विमान के साथ भगवान प्रकट हुए | भगवान स्वयं हर्षित होकर अपने पाँचजन्य शंख से ध्वनि करने लगे तथा गौकर्ण को हृदय से लगा कर अपने समान बना लिया |
यह कथा बहुत पवित्र है | एक बार के श्रवण से ही समस्त पाप राशि को नष्ट कर देती है | यदि इसका श्राद्ध के समय पाठ किया जाए, तो इससे पित्रगण को बड़ी तृप्ति मिलती है | और नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है |
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